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त्वे॒षं रू॒पं कृ॑णुत॒ उत्त॑रं॒ यत्स॑म्पृञ्चा॒नः सद॑ने॒ गोभि॑र॒द्भिः। क॒विर्बु॒ध्नं परि॑ मर्मृज्यते॒ धीः सा दे॒वता॑ता॒ समि॑तिर्बभूव ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tveṣaṁ rūpaṁ kṛṇuta uttaraṁ yat sampṛñcānaḥ sadane gobhir adbhiḥ | kavir budhnam pari marmṛjyate dhīḥ sā devatātā samitir babhūva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वे॒षम्। रू॒पम्। कृ॒णुते॒। उत्ऽत॑रम्। यत्। स॒म्ऽपृ॒ञ्चा॒नः। सद॑ने॒। गोऽभिः॑। अ॒त्ऽभिः। क॒विः। बु॒ध्नम्। परि॑। म॒र्मृ॒ज्य॒ते॒। धीः। सा। दे॒वता॑ता। सम्ऽइ॑तिः। ब॒भू॒व॒ ॥ १.९५.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:95» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह काल क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को चाहिये (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता-कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है यह समय (सदने) भुवन में (गोभिः) सूर्य्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होनेवाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सम्बन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्तम बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सबप्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि काल के विना कार्य्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाय यह होता ही नहीं और न ब्रह्मचर्य्य आदि उत्तम समय के सेवन विना शास्त्रबोध करानेवाली बुद्धि होती है। इस कारण काल के परमसूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा भी समय व्यर्थ न खोवें किन्तु आलस्य छोड़ के समय के अनुकूल व्यवहार और परमार्थ काम का सदा अनुष्ठान करें ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते ।

अन्वय:

मनुष्यैर्यद्यः संपृञ्चानः कविः कालसदने गोभिरद्भिरुत्तरं त्वेषं बुध्नं रूपं कृणुते या धीः परिमर्मृज्यते सा च देवताता समितिर्बभूव तदेतत्सर्वं विज्ञाय प्रज्ञोत्पादनीया ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वेषम्) कमनीयम् (रूपम्) स्वरूपम् (कृणुते) करोति (उत्तरम्) उत्पद्यमानम् (यत्) यः (संपृञ्चानः) संपर्कं कुर्वन् कारयन् वा (सदने) भुवने (गोभिः) किरणैः (अद्भिः) प्राणैः (कविः) क्रान्तदर्शनः (बुध्नम्) प्राणबलसम्बन्धि विज्ञानम्। इदमपीतरद्बुध्नमेतस्मादेव बद्धा अस्मिन्धृताः प्राणा इति। निरु० १०। ४४। (परि) सर्वतः (मर्मृज्यते) अतिशयेन शुध्यते (धीः) प्रज्ञा कर्म वा (सा) (देवताता) देवेनेश्वरेण विद्वद्भिर्या सह। अत्र देवशब्दात्सर्वदेवात्तातिल् (अ० ४। ४। १४२। इति तातिलि कृते सुपां सुलुगिति तृतीया स्थाने डादेशः। (समितिः) विज्ञानमर्यादा (बभूव) भवति ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्न खलु कालेन विना कार्य्यस्वरूपमुत्पद्य प्रलीयते नैव ब्रह्मचर्यादिकालसेवनेन विना सर्वशास्त्रबोधसम्पन्ना बुद्धिर्जायते तस्मात्कालस्य परमसूक्ष्मस्वरूपं विज्ञायैष व्यर्थो नैव नेयः किन्त्वालस्यं त्यक्त्वा समयानुकूलं व्यावहारिकपारमार्थिकं कर्म सदानुष्ठेयम् ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी हे जाणावे की, काळाशिवाय कार्यस्वरूप उत्पन्न होत नाही किंवा नष्ट होत नाही तसेच ब्रह्मचर्य इत्यादी काळाचे सेवन केल्याशिवाय शास्त्रबोध करविणारी बुद्धी प्राप्त होत नाही. त्यासाठी काळाचे परमसूक्ष्म स्वरूप जाणून क्षणभरही वेळ व्यर्थ घालवू नये, तर आळस सोडून वेळेनुसार व्यवहार व परमार्थाच्या कार्याचे नेहमी अनुष्ठान करावे. ॥ ८ ॥